Friday 29 June 2012

मर्जी से जीने अर्जी


न जाने कितनी ही बार हमंे अपने मन का करने के लिए भी दूसरों की परमिषन लेनी पड़ती है। मैं ऐसा बिलकुल भी नहीं कह रही कि हमें बिना किसी की बात सुने ही फुलटू अपनी मनमानी करनी चाहिए, बल्कि जो वक्त हम दूसरों के सही या गलत स्वीकृति के इंतजार में निकाल देते है उसमें अपने लिए भी सोचना चाहिए। मैं सड़क पर गाने नहीं गा सकती, क्योंकि मैं एक लड़की हूं, भला किस किताब में ये लिखा है जनाब। अपनी खुषी के लिए, अपने लिए हर किसी को अपने तरीके से जीने का भी हक है। हमंे क्या पहनना है कैसे चलना है इसे हमसे बेहतर कौन जान सकता है। यहां तक कि लड़कियां कपड़े भी अपनी पसंद से नहीं पहन सकतीं। तभी षायद स्लट वॉक ने अब लोगों की बोलती बंद कर दी बेहतर हो कि हम अपनी बात का जवाब अपने तरीके से दे।
कहीं और क्यों जाऐं अपने आस पास में ही देख लें ऐसे हजारों लोग मिल जाऐगें जिनकी खुद की कोई पहचान ही नहीं न ही कभी उन्होनें ऐसा चाहा। कहते है कि नाम में क्या रखा है क्या सच में ऐसा है। मेरी कामवाली बाई को ही ले लीजिए, उन्हंे सारा मोहल्ला रामू की अम्मा के नाम से जानता है, बचपन से मैंने उनका यही नाम सुना था, बड़े होकर मुझे थोड़ी क्यूरॉसिटी हुई तो पूछ ही लिया कि आंटी आपका नाम क्या हैं। उन्होने कहा बेटा षादी को 34 साल हो रहें है अब तो यही मेरा नाम है, पहले रमेष बहू कह कर बुलाते थे और अब रामू की अम्मा। आष्चर्य हुआ जानकर बिना नाम के कैसे कोई रह सकता है। कुछ दिन पहले अपनी कजिन सिस्टर ने बातों-बातों में यूं ही कहा कि तुम्हारी लाइफ तो अच्छी है क्योंकि आज जो तुम हो तुम्हारी खुद की वजह से ही हो। मैंने भी कहा तो क्यों तुमने हमेषा वो ही किया जो दूसरांे ने चाहा, मनचाहा करियर हो या जीवनसाथी तुम्हें हक था अपने लिए कुछ करने का। ‘अपने लिए तो सब ही जीते है पर अलग हो तब है जब हम दूसरों के लिए जियें’ उसके इस जवाब ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। कितनी बार हम दूसरों के कहने पर अपने निर्णय लेते हैं और वो ही करते है जिसे दूसरों की एप्रूवल मिल सके।
‘ नीड फॉर एप्रूवल ’ का यह गुण लोगों में इतना ज्यादा हावी रहता है कि अपने स्वयं के लिए वो सोचना तक भूल जाता है। हम जिस समाज में रहते है वहां सबसे पहले रिष्तांें को सबसे ज्यादा अहमियत दी जाती है। अकसर हम अपने बड़े बुजुर्गों से सुनते रहते हैं कि फलां काम ऐसे करो वैसे करो वरना चार लोग देखेंगे तो क्या कहेंगें। लोगों के बीच हमंे अपनी एक ऐसी छवि बनानी पड़ती है जिससे हमें ‘पॉजिटिव रिगार्ड’ मिल सके और षायद यही बात साइकोलॉजिस्ट कार्ल रॉजर्स ने भी बताई, बचपन से ही पेरेन्ट्स बच्चों को षर्तों मंे बांध देते है, ऐसा बनोगे तभी तुम्हें सब प्यार करेगें। फर्स्ट डिविजन पास हुए तो ही गिफ्ट मिलेगा वरना नहीं। अगर बच्चे का मन न भी हो तो भी बेचारा बलि का बकरा बन जाता है। इतना ही नहीं बचपन में इतना ठोक बजा कर ये बातें सिखाई जाती है कि बड़े होकर भी दिमाग से नहीं जाती और हम वो ही करते है जिसे दुनिया की मंजूरी मिल सके। बात यहीं पर खत्म नहीं होती , हम पैदा भी कुछ जन्मजात रिष्तों के साथ होते है और उसी में हमें सरवाइव भी करना पड़ता है। इन रिष्तों के मकड़जाल में सबसे ज्यादा पिसता है युवा वर्ग। जिसे कुछ चाहे अनचाहे रिष्तों की वजह से अपनी जिंदगी का बेड़ा पार लगाना पड़ता है। मम्मी ने कहा ये करना है तो हम वहीं करते है। पापा का हुक्म भी सिर आंखों पर रखते है। कभी मन मानकर तो कभी खुषी खुषी पर करते जरुर हैं। ये तो बात हो गयी हमारे सो कॉल्ड जन्मजात रिष्तों की लेकिन उन रिष्तों का भी यही हाल है। दोस्त हो या पड़ोसी हम चाह कर भी किसी बात के लिए मना नहीं कर पाते हैं। अरे लेकिन क्यांे हर बार कुछ करने के लिए दस लोगों का मुंह देखे कि हम सही है या गलत।
मनमानी का मतलब ये नहीं कि सिस्टम को ताक पर रख दें या दूसरों की बातों को अहमियत ही न दे। मर्जी का मतलब कुछ देर ही सही अपने लिए जीना है। बारिष में भीगना हो तो जरुर जाए, फिर ये न सोचे कि लोग क्या कहंेगें इस उम्र में भी मस्ती। आपको जुकाम है तो क्या आपका मन है , एक आइस्क्रीम तो बनती है न फिर मम्मी की डांट से क्या डरना। और तो और लोग अपनी उम्र का संकोच करते है अब भला उम्र का मस्ती से क्या लेना। लेकिन यह बात हम समझ ही नहीं आती है। अपनी सारी जिंदगी दूसरों को खुष करने में वेस्ट कर देते है। लोग क्या कहंेगे, अरे आप जैसे है वैसे ही रहिये न, फिर देखिये लोग आपको वैसे ही एक्सेप्ट करेंगे पर इससे पहले आपको स्वयं को एक्सेप्ट करना पड़ेगा। आप काले है गोरे है कोई फर्क नहीं, खुद से प्यार करिये, और देखियेगा, जिंदगी बहुत खूबसूरत लगेगी। अरे जनबा! अगर जिंदगी का सही मजा लेना है तो फिकर नॉट बस अब किसी के कमेन्ट्स की परवाह किये बिना ही चल पड़िये। मेरी सलाह काम आऐ तो जरूर बताइयेगा। जूही श्रीवास्तव