Friday 21 June 2013

बड़े अच्छे ‘नहीं ’ लगते हैं

‘फरारी की सवारी’ फिल्म में लीड हीरो शरमन जोषी जब टैफिक रुल तोड़ने पर खुद ही पुलिस के पास जा कर अपना चालान कटवाते है, क्योंकि अपने बच्चे को सीख देने के लिए वो कोई भी ऐसा काम नहीं करना चाहते जो बच्चे को गलत रास्ते पर ले जाए। एक छोटी सी सीख कितना कुछ सिखा जाती है बात वाकई काबिले तारीफ है। सही तो यही है कि बच्चों को सीख देने से पहले बड़े स्वयं अच्छी आदतें अपना ले जो बच्चे को प्रेरित कर सके। युवाओं को देष का आने वाला कल कहा जाता है और उन्हें दिषा दिखाने वाले बड़े आदर्ष होते हैं। जैसा वो अपने बड़ों को करते देखते है हूबहू वैसा ही करने और बनने की कोषिष करते है। एक दो साल की बच्ची उतने ही सलीके से फोक और चम्मच से खा सकती है जितना कि एक युवती, ऐसा उसने परिवार के सदस्यों को देख कर ही तो सीखा है। वहीं एक दूसरा बच्चा जिसके पिता हमेषा गुस्से में ही रहते है, वो यही समझता है कि गुस्सा होना और चिल्लाना लड़कों की पहचान होती है। अकसर बच्चों को हर बात पर टोका जाता है, ये काम ऐसे करो वैसे करो यहां न जाओ वहां न जाओ वगैरह-वगैरह। बच्चा थोड़ा समझदार होता नहीं कि नियम और कानूनों के बंधन में जबरन ही बांध दिया जाता है। बात-बात पर टोकना बड़ों की आदत बन जाती है। हम अपने बड़ों को ही अपना आइडल मानते है उनके जैसा ही बनना चाहते है। ऐसा न करने पर सभी से बातें सुननी पड़ती है। ऐसा नहीं है कि हमारे बड़े हमेषा ही सही होते हैं। गलतियां उनसे भी होती हैं पर कुछ गलतियां माफी लायक भी नहीं होतीं। क्या आप जानते हैं कि हमारे बड़े अकसर कुछ ऐसा कर जाते है जो समाज को तकलीफ देता है। वहीं आगे आने वाली पीढ़ी को भी सीखने लायक कुछ भी नहीं देता। यहां कहने का मतलब यह नहीं कि बड़े हमेषा ही हमें गलत सीख देते है लेकिन क्या हम बड़ों से सीखें और क्या नकारें यह ही सोचने को मेन प्रॉब्लम है। बड़ों से मिली सीख बहुमूल्य है पर हमें रोकने वाले बड़े क्या खुद पूरी तरह सही है। आइये आपको इनकी असलियत से रुबरु कराते है।
पचपन साल के षर्मा जी को पान खाने की बड़ी बुरी लत है। अब लत लगी तो लगी पर परेषानी का सबब बनी है उनके आसपास के लोगों के लिए। एक दिन तो हद हो गयी जब चलती बस से थूकते एक स्कूटी सवार लड़की को रंग दिया। ऑफिस की लगभग सभी दीवार के कोनों पर उनके ‘माअथ प्रिंट’ साफ देखे जा सकते है। ये मत सोचियेगा कि इस काम में केवल उन्हीं का कान्ट्रीब्यूषन है ऐसे हजारों शर्मा जी हमारे आस पास ही है जो उम्र में तो काफी बड़े हैं पर उनकी हरकतें सभी को नीचा दिखा दे। अभी ही कुछ दिन पहले हमारे ऑफिस का रेनोवेषन हुआ लेकिन कुछ लोगों को सफाई रास नहीं आई और दीवारें पान से रंग डाली। हम सिविक सेंस की बात करते तो है पर हर गाड़ी सवार गुटखा और पान सड़कों पर ही थूकते हैं। कूड़ा फेंकना हो तो दूसरों का गेट उन्हें ज्यादा पसंद आता है। अब यह दूसरा किस्सा सुनिये , रोज की तरह कल जब रीता ऑफिस से घर आ रही थी। रास्ते में एक बुजुर्ग व्यक्ति भी उस टैक्सी में चढ़ते हैं। बेटी- बेटी करते कब उनका हाथ रीता की पीठ तक जा पहुंचता है पता ही नहीं चलता। इतने वृद्ध व्यक्ति को क्या बोले रीता को समझ नहीं आया आखिरकार उनका हाथ झटकते हुए उसने समझाया कि अंकल सही से बैठियेे। अब सोचिये ऐसे कितने अंकल को बेटियां ठीक से बैठना सिखाऐंगी। बात केवल इतनी ही नहीं हैं ईव टीजिंग के अधिकतर मामलों में प्रौढ़ और व्यस्क ही दोषी पाए जाते है। तीसरा किस्सा है, महेष के पापा का जिनको सिगरेट की बुरी लत थी। लोगों ने कितना टोका पर उनके कान में जूं तक न रेंगी। बीस साल बाद जब उनके बेटे ने सिगरेट पीना शुरु किया तब उन्हें याद आया कि धूम्रपान से कर्क रोग होता है। अपने बेटे को मना कैसे करते बेचारे खुद भी तो सही नहीं थे।
चौथा किस्सा है सात साल के संजय का, जिसके घर में पिता रोज मां को षराब पी कर मारते थे। हालात तो ऐसे हैं कि अब वो बच्चा पापा से प्यार करना तो दूर बात भी नहीं करना चाहता और पिता का ऐसा व्यवहार उसके बचपन को खत्म कर रहा है। ऐसा कोई एक परिवार नहीं वैसे आज कल ‘आइसोलेटेड फैमिली’ का फैषन है। संयुक्त परिवार कम ही हो गये हैं। घर में बुजुर्ग जब बोझ बन जाते हैं, तब कभी प्रॉपर्टी तो कभी घर के कामों से तंग आकर घर में झगडे होते हैं। यह झगड़े भी हमारे बड़े ही करते है। भाई-भाई में पैसे को लेकर किया गया बंटवारा, और अलगाव बच्चों के नाजुक मन पर भी बुरा प्रभाव डालता है। इतना ही नहीं बच्चे बड़ों को झगड़ता देख उन्हें प्यार और सम्मान दोनों करना बंद कर देते है। इन बड़ों के किस्से कम भी नहीं उस दिन की बात याद है मुझे, जब एक अंकल अच्छे व साफ सुथरे कपड़े पहन कर टैक्सी पर चढ़े, थोड़ी देर बाद एक किसान भी अपना फटा पुराना झोला ले, उनके बगल में बैठता है। मंुह पर रुमाल और नाक-भौं सिकोड़ते वो किसान के उतरने का ही इंतजार करने लगे। जरा सा भी उसका कपड़ा या झोला छू भर जाता तो उसे सही से बैठने की चेतावनी देने लगते। उन्हें देख कर सोचा कितनी मजे की बात है जो किसान हमें खाना देता है वो भला छूत क्यों हो जाता है। छुआ-छूत को भले ही आज का यूथ न माने पर बड़ो में यह मान्यता बहुत ही ज्यादा है। हमारे बड़े जाति-धर्म में एकता की बात करते है, फिर एक दलित और मलिन बस्ती के लोगों द्वारा बनाया हुआ मंदिर उनके लिए छूत कैसे हो सकता है। भगवान तो सभी जगह वास करते है वो मंदिरों में भेद नहीं करते तो हमारे बड़े बुजुर्ग क्यों करते है। सोचने की जरुरत है कि बच्चों को अच्छे संस्कार केवल किताबों से मिल रहे है या उसमें बड़ों का निस्वार्थ प्रेम और अमूल्य ज्ञान भी शामिल है। वहीं एक पैंसठ साल के दंपत्ति अपनी पोती के साथ एक दुकान पर जाते है, मन माफिक दाम में चीज न मिलने पर लड़ाई-झगड़ा तो करते ही हैं ,साथ ही दुकानदार को गाड़ी के नीचे आ कर मरने की बद्दुआ भी दे जाते है। उनकी पोती ने भी यह सब देखा और शायद अपने दादा-दादी से कुछ बहुमूल्य ज्ञान लिया ही होगा। किस्से कम नहीं है, पर सीख भी अच्छी नहीं है। एक बच्चे के साथ जब चाइल्ड एब्यूज़ होता है तब उसके जिम्मेदार भी वो समझदार इंसान ही होते हैं। रोज हो रहे अपराधों में भी बड़े ही शामिल हैं। ऐसा क्यों होता है कि छोटी-छोटी अफवाहें बड़े दंगों का रुप ले लेती है, कितने ही समझदार लोग धर्म के नाम पर खून बहाते हैं। शांत मन से झगड़ों का निपटारा नहीं करते। बच्चों के झगड़े भी बड़ों के लिए रंजिष का कारण बन जाते है। ऐसे में बच्चों को बड़ों से जो ज्ञान मिलता है, उसे वे अपने जीवन में उतार भी नहीं सकते। यह किसी की जिंदगी तो खराब करता ही है साथ ही मासूम बचपन को भी खत्म कर देता है। फ्रॉइड के अनुसार बचपन में सीखे व्यवहारांे और सोच का प्रभाव जिंदगी भर चलता रहता है। इतना ही नहीं कुछ कुठांए और इच्छाओं का दमन अचेतन मन में बना रहता है जो आगे चलकर कभी व्यवहार तो कभी सपनों के रुप में प्रकट होता है। बचपन में सीखी गलत आदतें भविष्य के लिए गलत साबित हो सकती हैं। जरुरी है कि बच्चे की जिंदगी में प्रभावी लोग उसे अच्छी सीख दे सकें। रॉजर्स कहते हैं कि बचपन में दिमाग एक ‘ काली स्लेट ’ के जैसा होता है। उस पर बड़े जो लिखेंगे बच्चा वैसा ही व्यवहार करेगा। यूं तो बड़े गलत कभी नहीं सिखाते पर कई बार ऐसा भी ज्ञान दे जाते हैं जो समझ से परे होता है। कबीर जी के एक दोहे में सीख भी दी गयी है- बड़ा हुआ तो क्या हुुआ जैसे पेड़ खजूर पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर। आज कल सभी कहते है कि बच्चे उम्र से पहले बड़े हो रहे। कम उम्र में वो हर जानकारी रखते है। फोन हो या फेसबुक सब पर वो ही छाये रहते है। उम्र से पहले का यह बड़प्पन उनकी मासूमियत को दूर कर रहा है। समय तो बदल ही रहा है ऐसे में जरुरत है बड़े बच्चों को सही ज्ञान दें और उससे पहले ही स्वयं को बदलें। JUHI SRIVASTAVA